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मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

ग़ज़ल : मध्य अपने आग जो जलती नहीं संदेह की

ग़ज़ल :
बह्र : रमल मुसम्मन महजूफ

मध्य अपने आग जो जलती नहीं संदेह की,
टूट कर दो भाग में बँटती नहीं इक जिंदगी.

हम गलतफहमी मिटाने की न कोशिश कर सके,
कुछ समय का दोष था कुछ आपसी नाराजगी,

आज क्यों इतनी कमी खलने लगी है आपको,
कल तलक मेरी नहीं स्वीकार थी मौजूदगी,

यूँ धराशायी नहीं ये स्वप्न होते टूटकर,
आखिरी क्षण तक नहीं बहती ये नैनों की नदी,

रात भर करवट बदलना याद करना रात भर,
एक अरसे से यही करवा रही है बेबसी.........

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अरुन शर्मा अनन्त
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11 टिप्‍पणियां:

  1. सरिता भाटिया22 अप्रैल 2014 को 2:02 pm

    अरे वाह प्रेममय नाम
    बढ़िया गजल के लिए बधाइयाँ

    प्रत्‍युत्तर देंहटाएं
  2. -सुंदर रचना...
    आपने लिखा....
    मैंने भी पढ़ा...
    हमारा प्रयास हैं कि इसे सभी पढ़ें...
    इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना...
    दिनांक 24/04/ 2014 की
    नयी पुरानी हलचल [हिंदी ब्लौग का एकमंच] पर कुछ पंखतियों के साथ लिंक की जा रही है...
    आप भी आना...औरों को बतलाना...हलचल में और भी बहुत कुछ है...
    हलचल में सभी का स्वागत है...

    प्रत्‍युत्तर देंहटाएं
  3. आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति बुधवारीयचर्चा मंच पर ।।

    प्रत्‍युत्तर देंहटाएं
  4. सुशील कुमार जोशी22 अप्रैल 2014 को 5:29 pm

    बहुत सुंदर गजल अरुन ।

    प्रत्‍युत्तर देंहटाएं
  5. बहुत सुन्दर प्रस्तुति

    प्रत्‍युत्तर देंहटाएं
  6. बेहतरीन

    प्रत्‍युत्तर देंहटाएं
  7. आज क्यों इतनी कमी खलने लगी है आपको,
    कल तलक मेरी नहीं स्वीकार थी मौजूदगी,...
    बहुत ही खूबसूरत शेर है इस गज़ल का ... आफरीन ... आफरीन ...

    प्रत्‍युत्तर देंहटाएं
  8. आशा जोगळेकर23 अप्रैल 2014 को 6:32 pm

    आज क्यों इतनी कमी खलने लगी है आपको,
    कल तलक मेरी नहीं स्वीकार थी मौजूदगी,
    वाह, प्रेम के साथ साथ सामाजिक सरोकार से जुडा है ये आपकी गज़ल।

    प्रत्‍युत्तर देंहटाएं
  9. बहुत सुंदर....

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  10. वाह बहुत खूब

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  11. उम्दा ..

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